लम्पू
बात उन दिनों की है, जब गांवों बिजली भी गिने चुने लोगो के यहाँ होती थी और जिनके यहां होती भी थी उनको भी लम्पू की आवश्यकता उतनी ही थी जितनी कि जिनके घर बिजली न होती थी। कारण बिजली का कभी भी रात में गायब हो जाना, जैसे कभी बिजली के ट्रांसफार्म का फ्यूज उड़ जाना, और फिर हफ़्तों तक बिजली गुल हो जाना या फिर शाम ढलते ढलते हमेशा बिजली की रोशनी भी कम हो जाना। तब दो ही चारे रहते थे या तो वांटेन का बल्ब (100wt ) लगाना या फिर लम्पू जलाना।
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पहाड़ी लैम्प |
चूल्हा
आज भी हम लोग उत्तराखंड में चूल्हे में आग जलाना एक परंपरा का हिस्सा मानते है। अगर चूल्हा न जले तो अपशगुन सा मानते है, ओर इन सब के लिये मिट्टी का तेल ही काम आता है।अब तो शायद लोग मिट्टी का तेल महज 1 या 2 लीटर लेके आते है ताकि मजबूरी के समय काम आ सके, जैसे जब चूल्हे मे आग जलानी हो, पर उस समय ऐसा नही था, तब राशनकार्ड में परिवारों की सदस्यों की संख्या के हिसाब से राशन व मिट्टी तेल मिलता था।
उस समय चिमनी के लेम्प भी आ गए थे ओर लालटेन भी, पर लोग लैम्प ( लम्पू ) को ही महत्ता देते थे क्योंकि इससे मिट्टी तेल की खपत कम होती थी। कभी कभी पढ़ते पढ़ते लम्पू की लो पर देखकर ही नींद की छपकिया आ जाती थी और पढ़ने का मन ही नही करता था। रोज शाम को हाथ मुँह धोकर लम्पू में मिट्टी तेल डालकर, मंदिर में दिया बत्ती करके, ओबरे में चूल्हें के धुँए में खाना खाना, अब ये सब महज एक सपना सा रह गया है। उन दिनों लोग कभी कभी लम्पू के धुंए से हताहत हो जाते थे, तब से सबका नियम होता था, रात को लम्पू को बन्द करके सोया करो या तो इसकी लो कम रखा करो नही तो सुबह तक पूरे कमरे में मस्सा (धुँवा) फैल जाता था फिर हमारी नाक के अंदर धुँए की काली पपड़ी भी जम जाती थी।
चूल्हे में जब लकड़िया ठीक से नही जलती थी, तब बार बार भक्क भक्क करके चूल्हे में जेरकिन के ढक्कन से मिट्टी तेल डालना ओर आग जलाना जीवन भर याद रहेगा, ओबरे (सबसे नीचे कमरा) में धुंआ धुंआ कर देना और खुद भी आंसू आंसू हो जाना। कभी कभी बर्तनों को इतना काला कर देना की घर पर भारी मार भी पड़ती थी। दीवाली में भेलो जलाने के लिए मिट्टी तेल में लबालब भिगोकर "भेलो" तैयार करना, तब मिट्टी तेल भी हिस्सों में लाया जाता था। तब बांटे लगती थी, थोड़ा थोड़ा मिट्टी तेल और टूटे हुए कंडे स्वालटे लेकर आएंगे ताकि उचित मात्रा में सामग्री जोड़ी जा सके। गांव में अंधेरों में जब बारातियों को लाने के लिए उजाला नही रहता था तब मुछयालु ( मशाल) बनाना ओर सज्जनों को सही ढंग से घर पर लाना भी अव्वल दर्जे का उपाय था।
जब भी हम जैसे लोगों को बचपन की यादें जेहन में आएगी, तब तब "मिट्टी का तेल" और "लम्पू" जरूर याद आएंगे। आज बहुत सी गौं की प्रतिभाएं उन अंधेरो से होकर उजालों में अपना मुकाम ढूढ सकी। ये सिर्फ महज कह देने वाली बात नही है उस समय लम्पू और मिट्टी तेल की आवश्यकता रोटी,कपडा और मकान जैसे ही थी।
- दीपक
- दीपक
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