रोपणी
शाम ढलते ही घर में पकवान बनाने की तैयारियां शुरू हो गयी। माँ के साथ बड़ि (ताई ) ओर दादी भी हाथ बताती हैं। पकवान में छोले-आलू, पूरी, गुलथ्या ( हलवा), रोटी, सब्जी आदि को कल के लिए तैयार करना था, साथ ही चने पकाना, आलू काट-छिल के रखना, पूरी बनाना और अंत में बैलों के लिए मुंडे बटकर तैयार करना। देर रात तक ये तैयारियां चलती ओर अगले दिन बिनसिर (तड़के सुबह) उठकर सभी पकवान तैयार करने मैं जुट जाते साथ में पतेली भर चाय बनाना जिसे बाद में थर्मस में रखना होता था। किचन में खटबट की आवाज सुनकर, पकवान की खुशबू से हम भी खुशी से सुबह जल्दी उठ जाते, क्योंकि आज रोपाई (रोपणी) का पहला दिन था जिसका हम सभी भाईयों का बेसब्री से इंतजार रहता था। अब गावँ की कुछ महिलाएं ( चाची-ताई, पुफु, दीदी-भूली) भी घर पर आ जाती, फिर सब धूप निकलने से पहले ही घर से खेतों की ओर निकल जाते। किसी के पास नसुडा (हल), तो कोई मयू (रोपणी के लिए), कोई फरवा (फावड़ा), कोई बल्दों (बेलो) को ले जाते। हम सब भाई भी इनके साथ मस्ती भरे कदमो से साथ-साथ जाते। खेतों में पहुँचकर बड़ा आनंद मिलता था क्योंकि रोपणी करने से ज्यादा मस्ती करने का मन करता। थोड़ी देर बाद मां या बड़ि भी पहुँच जाती थीं जिनके पास पकवान (भोजन) से भरा हुआ कण्डा रहता था।
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Ropai (ropani) |
रोपणी के एक दिन पहले हम सब भाई अपने पुराने कपड़े ढूंढने में लग जाते थे, जिसे पहनकर हमे रोपणी करने जाना होता था, क्योंकि नए कपडे मिट्टी में इंतने गन्दे हो जाते की उनका मैल कई दिन तक निकल नही पाता था। रोपणी तीन या चार दिन चलती लेकिन खेत बटे होने के कारण एक दिन और भी लग जाता था। सबसे पहले दादी-नानी लोग एक खेत से नाज (धान का पौधा) निकलने में जुट जाते फिर उनकी छोटी छोटी गठियाँ बनाकर एक जगह रखती, जिसे बाद में सारे खेतों में रोपणी के बाद बोना ( लगाना) होता था। वहीं जब एक खेत में पूरा पानी भर जाता फिर ताऊ/चाचा नसुडा से बेलों के साथ हल लगाते फिर सभी उस खेत की रोपाई करने में जुट जाते। हल लगाने के बाद मयू लगाना होता जिससे हल द्वारा पलटी हुई मिट्टी औऱ पाणी को आपस में पूरी तरह मिलाकर दलदल कर सके। हम मयू लगने का इंतजार करते थे क्योंकि उसके ऊपर बैठकर बारी- बारी से सवारी जो करनी थी, जिसका आनंद किसी कार या गाड़ी से बढ़कर था। मयू में खड़े होकर बैलों की पूंछ पकड़कर उनको तेज भगाना फिर हाथ छोड़कर स्टंट दिखाना, बडा मजा आता था।
अब हम लोगों का खाली एक ही काम होता था बिडाल (मेंड) लगाना मतलब खेत की मिट्टी को उठाकर किनारों में पोत देना। रोपाई के बाद महिलाओं का काम होता था नाज बोना। उसके लिए दादी- नानी द्वारा कट्ठा किया नाज था । उसको लाने के लिए दौड़कर जाते थे क्योंकि उन गड्डियों को उस खेत में फेंकना पड़ता था जहाँ रोपाई करनी थी। नाज की गड्डियों को फेंकने में बड़ा आनद आता था कि कौन कितनी दूर फेंक सकता है वो भी सीधा खड़ा करके।
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नाज की रोपाई |
कुछ काम करने के बाद भोजन (नास्ता) का समय भी हो जाता। अब सभी लोग एक जगह में बैठ जाते जिससे थोड़ी थकान भी मिट जाती, फिर मिलकर सब पकवान का आनंद लेते। वो खाना उस समय इतना स्वादिष्ट होता था कि बयां नहीँ कर सकता। हम लोग घर से भी खाके आते थे फिर भी वहां पर दुबारा खाने का आनंद ही कुछ ओर होता था। खाने के बाद फिर सभी काम में लग जाते थे।
मछली पकड़ना
अब दादा जी भी खेतों में पहुँच जाते, फिर हम लोग उनके साथ पास में बहती गाड (नदी) से कूल ( नहर ) में पाणी निकालकर खेतों तक पहुँचाने का काम करते। उसके बाद हम लोग गाड में ही पड़े रहते -कारण मछलियां पकड़ना। बचपन से ही हमे मछली पकड़ने का बहुत शौक था, जो कि दादा जी की देंन थी, किस तरह मछली पकड़ी जाती हैं, कैसे वाल तोड़ना (पानी की धारा बदलना) था, ये सारी बारिकियां दादा जी से ही सीखीं थी।
गर्मियों की छुटियों में जब भी मौका मिलता चुपके से सभी भाई ओर कुछ दोस्त घर से टोकरी लेके जाते, साथ में मछली मारने के लिए अखोड (अखरोट) के पेड़ की पत्तियां, अखोड के छिलके भी ले जाते । कभी कभी चूना भी ले जाते थे, फिर पूरी गाड छान मारते कि कहाँ मछलियों का चारा ज्यादा लगा जिससे पता लग जाता की किस तलो (तालाब) में ज्यादा मछलियां है और किंतनी बड़ी हैं। फिर वहाँ रुककर वाल तोड़ना, उसके बाद अखोड की पत्तियां ओर छिलको को एक पत्थर में कूटकर बारीक बनाते थे। पानी कम होते ही उसको टोकरी में डालकर पानी के अंदर डालते फिर टोकरी से पानी में मिला देते। थोड़ी देर इंतजार करने के बाद मछलियों को नशा लगता फिर हम टोकरी की सहायता से या फिर हाथ से ही मछलियों को पकड लेते थे। मछली पकड़ने का इतना शोक था कि कभी कभी जब माँ हमे जबरदस्ती दिन में अपने साथ सुला देती थी तो हम चुपके से मां की नजरों से छुपकर कमरे से बाहर निकल जाते थे फिर उसके बाद सीधे गाड पहुंच जाते थे मछली पकड़ने के लिए।
चूना ओर अखरोट के पत्ते या छिलके से कभी-कभी पानी के कीड़े-मकोड़े, सांप आदि को भी नशा हो जाता था। एक बार ऐसा हुआ भी था, मैं टोकरी से चूने को पानी में मिला ही रहा था की टोकरी में सांप आ गया, यह देखकर मेरे अंदर थरूट (कम्पन्न) बेठ गया था। आनन फानन में टोकरी को वहीं छोड़कर पानी से बाहर भागा। फिर डर के मारे कोई भी मछली पकडने के लिए पानी में नही गया। कभी कभी मछली के अलावा अगर केकड़ा भी दिख जाता तो उसको भी पकड़ लेते थे। फिर घर लाकर उसको भूनकर बड़े चाव से खाते थे क्योकि दादा जी कहते थे की ये मेडिसिन (दवाई) का काम करता है, वाकई में ये होता भी बड़ा स्वादिष्ट था। चाइना, जापान जैसे देशों में लोग कीड़े आदि बड़े चाव से खाते है ओर उनका सूप भी पीते हैं।
मछली पकड़ने के बाद गाड में बावती काटना (तैरना) का मजा ही कुछ ओर था। पानी मे कई करतब दिखाना जैसे- साइकिल बावती, मेढ़क बावती, उल्टी बावती या फिर कौन किंतनी देर पानी के अंदर सांस रोक के रह सकता है ओर फिर इस तरह से पानी से ऊपर आना की बालों कि सेटिंग ऐसी लगे जैसे बिल्कुल कंघी की हो। तैरने के बाद पत्थरों के ऊपर लेटकर धूप में सूखना और पीछे पत्थर की गर्मी का आनंद लेना, वो बचपन का सुनहरा दौर आज भी बहुत याद आता है, जो फिर कभी वापस नही आएगा।
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