Saturday, September 28, 2019

ढोल-दमाऊं और ब्यौ (शादी)

ढोल-दमाऊं


वो भी एक दौर था जब बिना ढोल-दमाऊं के गौं (गावँ) में कोई भी शुभ कार्य नही होता था तब ढोल की अलग ही छाप थी और अब ये भी एक दौर आ गया जिसमें ढोल दमाऊं का महत्व ही घट गया है जो कि पहले हर काम के लिए महत्वपूर्ण था। ढोल दमाऊं हमारे पहाड़ की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। मुझे अभी भी याद है गांव के औजी (बाजीगर) किसी भी शुभ कार्य में अपने ढोल दमाऊं लेकर पहुँच जाते थे। गांव में किसी नोनू (बच्चा) का मुंडन हो या किसी के घर में पाठ (नवरात्र पूजा) बैठा हो, गावँ की पण्डवार्त ( पांडव लीला), ईगास (दीवाली) हो , चक्रव्यूह हो या किसी का ब्यो (शादी)  या कोई अन्य कार्य हो सबमें ढोल का विशेष महत्व था। गावँ के शुभ कार्य में सबसे पहले बजने वाला ढोल की नौबत (एक ताल) सुनकर दूर से ही मन खुश हो जाता था, जिससे पता लग जाता था कि गौं में किसी के यहाँ कोई शुभ कार्य है। थोड़ी ही देर में गौं के सभी बच्चे  खुश होकर वहाँ इक्कठा हो जाते थे औऱ इसी बहाने स्कूल की भी छुट्टी कर लेते फिर दिन भर वहाँ खेलते कूदते। जब भी ढोल बजता तो उसकी ताल पूरे शरीर में कम्पन्न करके नाचने के लिए मजबूर कर देती। उस समय मन को ओर भी शुकुन मिलता था जब औजियों को ढोल से दूर देखकर उनकी नजरों से छुपकर तुरंत ढोल के पास दौड़ लगाकर उसे अपने हाथ या किसी डंडे से बजाते ताकि उसकी एक आवाज सुन सके।

ब्यो (शादी) 


ढोल दमाऊं के मंडाण (नाच का एक ताल) में नाचने का मजा ही कुछ ओर ही था। आज की शादियों में ढोल-दमाऊं का महत्व घट गया है। क्योंकि उनकी जगह अब बैंड बाजा और डी. जे. ने ले ली है। गांव के लोग अब अपनी पुरानी संस्कृति को भूल गए हैं।  वो भी जमाना था जब पूरी शादी ढोल-दमाऊं और मुशकू बाजू (मशकबीन) पर ही होती थी। मशकबीन की आवाज तो दिल को छू लेती थी जिसको सुनकर बड़ा शुकुन मिलता था, जैसे ही बजता था दुल्हन और उसके परिवार वालों की आखों में आंसू आ जाते थे पर आज ये पारंपरिक बाद्य यन्त्र मशकबीन तो शादी में कहीं विलुप्त सा हो गया है। अब तो मंगल स्नान भी डी.जे. के गानों में हो रहा है। शादी के अवसर पर फेरे के समय गावँ की नौनी (लड़कियां) द्वारा गाया जाने वाला मांगल गीत भी अब कहीँ नही सुनायी देता क्योंकि नयीं पीढ़ी अब पुरानी संस्कृति से दूर होती जा रही है। पहले गावँ के लोग धूमधाम के साथ दूसरे गावँ में बारात लेकर रात को पहुंचते थे फिर उस गावँ के लोग सभी बारातियों का अच्छे से अतिथि सत्कार थे। जहाँ बारात जाती थी उस गावँ के लोग पहले से ही बारातियों की व्यवस्था अपने अपने घरों में कर लेते थे ताकि रात में रहने के लिए किसी को कोई परेशानी न हो। बच्चों को शादी में जाने पर थोड़ा असमंजस की स्थिति रहती थी, किसी के घरवाले छोटे बच्चों को शादी में जाने की इजाजत नही देते थे, लेकिन बच्चे बहुत जिद करते थे, इसलिए कभी-कभी तो घर में पिटाई भी हो जाती थी और जो चले भी जाते थे वो किसी बुजुर्ग की निगरानी में होते थे। गावँ में कुछ बच्चे तो बारात में जाने का मन पहले से ही बना लेते थे चाहे उनके घरवाले लाख मना करे, वे इतने चालक होते थे कि बारात प्रस्थान से पहले ही बस की सीट के नीचे छिप जाते थे ताकि कोई उन्हें देख न सके फिर वो सीधे वहीं पहुँचकर बारात में नजर आते थे।



हमारा शादी में जाने का एक ही मकसद रहता था, वो पीठांई (टिका) का लिफाफा। मतलब जो बारातियो को टीका लगता उसके साथ जो पैसे का लिफाफा मिलता वो। जैसे ही पीठाईं का लिफाफा मिलता उसी समय चेक कर लेते की कितने का नोट है। उस समय ₹5 का भी नोट देखकर मन खुश हो जाता था। कभी-कभी तो कुछ बच्चे पहली पंक्ति से टिका लगाकर बामण (ब्राह्मण) की नजर से छुपकर तुरन्त टिका को मिटाकर पिछाड़ी (अंतिम) वाली पंक्ति में दूसरे लिफाफे के चक्कर में बैठ जाते थे। लिफाफे में मिलने वाला पैसा उस दौर की हमारी जमा पूंजी थी या फिर ननिहाल से घर आते समय नाना-नानी, मामा-मामी, मौसी सभी रिश्तेदारों से मिलने वाला पैसा भी, जो जबरदस्ती हाथ में पकड़ा देते थे फिर मम्मी वो पैसे बाद में देने के नाम पर ले लेती थी जो फिर कभी वापस नही मिलता था। इस तरह दो दिवसीय शादी शांतिपूर्ण निपट जाती थी लेकिन इस नयें दौर की भागा दौड़ी में समय की बचत के खातिर गावँ की जो शादी दो दिन तक चलती थी वो आज वनडे (एकदिन) में ही सिमट के रह गयी है।

गावँ में शादी ही ऐसा माहौल था जिसमे सभी लोग मिलजुल कर काम करते थे, लेकिन अब ये भी देखने को भी नही मिलता क्योंकि वहाँ अब लोग ही नहीं हैं जिसका सबसे कारण है गावँ में पलायन। गावँ में मूलभूत सुविधा जैसे- रोजगार, अस्पताल, स्कूल आदि न होना। जो लोग पहले रोजगार के लिए बाहर थे और परिवार गावँ में था, अब सक्षम होकर परिवार भी अपने साथ ले गए और फिर उन्होंने वापस गांव की ओर कभी मुड़कर नही देखा, इस तरह गावँ में कुछ कुड़ा ( मकान) खंडर हो गए हैं जो धीरे धीरे बढ़ते जा रहे हैं जो अब भूतिया होने की कगार पर आ गए हैं। वर्तमान में यही पलायन अब पहाड़ी गावों की सबसे बड़ी बिड्डमना बन चुकी है, जिनकी अब कोई सुध नही लेता।


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